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"आत्म-संधान की प्रक्रिया अब तकनीकी रूप से बाह्य स्त्रोतों को सौंप दी गई हैं"

 "आत्म-संधान की प्रक्रिया अब तकनीकी रूप से बाह्य स्त्रोतों को सौंप दी गई हैं"

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'तुम्हारे होने के केन्द्र में, 

तुम्हारे पास उत्तर है; 

आप जानते हैं कि आप कौन हैं 

और आप जानते हैं कि आप क्या कर सकते हैं।'


           यह कथन सिद्ध करता है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी उपलब्धि आत्म-संधान ही हैं लेकिन स्वयं कि खोज इतनी आसान होती है, यह कहना भी कठिन हैं। वर्तमान विश्व में सुर्ख़ियों में रहने वाली झूठ को पकड़ने के लिए मशीन हो या ऐमिका जैसे रोबोट कही न कही यह भी मानवीय आत्म संधान पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं? -


" स्वयं को जानना सभी ज्ञान की शुरुआत हैं।"

                                      -अरस्तु


     यह कथन आज से सैकड़ो वर्ष पूर्व अरस्तु द्वारा प्रस्तुत किया गया था जो वर्तमान युग भी में प्रासंगिकता को भी सिद्ध करता है ऐसे में हमें यह जानना जरूरी हैं कि आत्म-संधान क्या है और किस तरह आत्म-संधान की प्रक्रिया में बाह्य स्रोतों की भूमिका बड़ी है? आइए देखते हैं।


            आत्म-संधान (आत्म-खोज) से तात्पर्य हैं कि जब व्यक्ति अपनी क्षमताओं, चरित्र और भावनाओं का ज्ञान या समझ हासिल करने की प्रक्रिया में अपने स्वयं को रखता हैं तब व्यक्ति को आत्म-खोज की प्राप्ति होती हैं यह एक प्रकार से हमारे दर्शन का भी मूलभाग है।

          इस प्रकार हमारे दार्शनिक आधार में व्यक्ति को आत्म- खोज के रूप में कर्म करने पर बल दिया गया है जिससे कर्म की पवित्रता का निर्धारण किया जा सकें।


            ऐसा ही एक उदाहरण एक राष्ट्र के रूप में जापान का देखा जा सकता हैं जापान की एक रणनीति "BUILD BACK BETTER" यह बताती हैं कि किसी कार्य को करने के लिए शारीरिक क्षमता से पहले आपके करने या ना करने की इच्छा पर निर्भर करता हैं। जापान के इसी आत्म -खोज ने जापान की कम आबादी के बावजूद भी एशिया में सबसे पहले औद्योगिक क्रांति का उदाहरण प्रस्तुत किया।


          इस तरह आत्म-खोज व्यक्ति के व्यक्तित्व का आरंभिक बिंदू माना जाता हैं जहाँ व्यक्ति अपने आत्म - खोज के माध्यम से अपने आचरण व व्यवहार का निर्धारण करता हैं। लेकिन इसका सबसे बड़ा सकारात्मक उपयोग तब होता हैं जब व्यक्ति के हितों को लेकर टकराव हो, जैसे- पर्यावरण बनाम आर्थिक गतिविधि। इस द्वंद्व में व्यक्ति हो सकता है आर्थिक गतिविधि को महत्ता दे लेकिन आत्म-खोज व्यक्ति को पर्यावरण के प्रति भी दायित्व निश्चित करती हैं। क्योकिं पर्यावरण भी जीवन का अभिन्न अंग हैं।


           "खुद को खोजने का सबसे अच्छा तरीका है कि आप खुद को दूसरों की सेवा में खो दें।"

                                 -महात्मा गाँधी


       महात्मा गाँधी ने आत्म - खोज की प्रक्रिया में दूसरों की सेवा को शामिल किया हैं उनका मानना था कि जैसा व्यक्ति अपने स्वयं के बारे में सोचता है वैसा अन्य के बारे में सोचें, तो यह विश्व घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, अस्तेय से मुक्त होगा जहाँ शांति व प्रेम की भाषा सर्वोपरि होगी।

           लेकिन यह कहना भी विचारणीय हैं कि आत्म-खोज की प्रक्रिया वर्तमान विश्व में बाह्य स्रोतो पर अधिक निर्भर है जहाँ व्यक्ति हो या राष्ट्र स्वयं का आकलन दूसरों के साथ करने में व्यस्त हैं ऐसे में हमें बाह्य स्रोतों की भूमिका को भी देखना आवश्यक हैं :-


          आज के युग में विचारों की  महत्ता प्राचीन युग के समान नहीं रही हैं जहाँ प्राचीन युग में विचारों के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व तथा कर्म दोनों को समझा जा सकता था लेकिन जैसे- हिटलर व मार्क्स। लेकिन वर्तमान में व्यक्ति के विचारों को अन्य हितधारकों द्वारा थोपा जाता है जहाँ आत्म-खोज की भूमिका नगण्य होती हैं जैसे- राजनेताओं द्वारा जातिवाद आधारित राजनीति के विचार।


           वर्तमान एक विज्ञापन का दौर हैं जहाँ विज्ञापन में व्यक्ति के मनोमस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव उत्पन्न किया जाता है कि व्यक्ति असत्य घटना को भी सत्य घटना मान लेता हैं इस तरह विज्ञापन में ऐसी बनावट की जाती है कि व्यक्ति कि आत्मखोज प्रभावित हो जाती हैं जैसे- स्वास्थ्य को लेकर विज्ञापन या फेयर एंड लवली का विज्ञापन।

           

       शिक्षा आत्म - खोज का सबसे बड़ा परिणाम हैं। शिक्षा के माध्यम से अनुभव की प्राप्ति होती हैं। वहीं अनुभव प्रत्यक्ष रूप से आत्म - खोज को बढ़ावा देता है लेकिन वर्तमान में शिक्षा का रूप व्यवसायिक मॉडल के रूप से विद्यमान हैं जहाँ आन्तरिक अनुभूति पर ध्यान न देकर बाह्य अनुभूति को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है जैसे कर्म की बजाय परिणाम पर अधिक ध्यान, ऐसे में यह विचलन आत्म-खोज को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता हैं।

          इसी तरह भौतिकवाद या इच्छाओं का प्रभाव भी आत्म - खोज की प्रक्रिया को बाधित करता है जब एक व्यक्ति अपनी स्वयं की इच्छाओ को सर्वोपरि मान लेता हैं तो वह व्यक्तिवाद को जन्म देता हैं तथा यहीं व्यक्तिवाद व्यक्ति को दूसरों के नुकसान में अपनी भलाई की बात को बढ़ावा देती हैं इसलिए ही महात्मा बुद्ध ने इच्छाओं के दमन में आत्म - खोज को सर्वोपरि माना था।

          

            एक कथन हैं कि "जैसा बदलाव आप दूसरों में देखना चाहते हो, वैसा पहले बदलाव स्वयं में लाओ।" यह कथन भी आत्म-खोज की व्याख्या करता है लेकिन आज इसका बाह्रय रूप स्वयं में बदलाव न लाकर दुनिया को बदलने की चेष्टा हैं। इसी कारण गाँधीजी जैसे सफल उदाहरण हमारे जीवन में देखने को मिलते हैं।


        इस कोविड महामारी के दौर में भी हमें आत्मखोज का उदाहरण मिलता हैं। कोविड - 19 के लाकडाउन में जहाँ व्यक्तियों में तनाव, अवसाद तथा मानसिक बिमारियों से ग्रसित होने की संख्या में बढ़ोतरी हुई हैं इसका सबसे परिणाम आत्महत्या में वृद्धि हैं वहीं दूसरी तरफ एक सफल उदाहरण भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र का कमजोर होने के बावजूद तथा संसाधन कम होने के बाद भी आत्म-खोज ने भारत को अच्छा कार्य करने के लिए प्रेरित किया |


          इस तरह हम यह कह सकते हैं कि आत्म - खोज व्यक्ति व राष्ट्र सभी के सर्वागीण विकास पर बल देता है यह आत्मखोज ही हैं जो व्यक्ति को पशु के व्यवहार से अलग करता हैं। ऐसे में हमें यह जानता है कि आत्मखोज की प्राप्ति कैसे करें?


         आत्म - खोज (संधान) की प्रक्रिया के लिए ना ही दीर्घकालिक समय की आवश्यकता है ना ही किसी संसाधन की, यह व्यक्ति में आत्मचेतना व आत्म - ध्यान की आवश्यकता को दर्शाता हैं। इसी तरह बल्ब का आविष्कार करने वाले वैज्ञानिक थॉमस ऐल्वा एडीसन इसलिए सफल हुए कि उन्होंने स्वयं की खोज में सफलता को रखा था जहाँ विभिन्न विफलताओं के बावजूद भी आत्म खोज ने उन्हें प्रेरणा प्रदान की।


" जब तक आप अचेतन को चेतन नही करेंगे, 

यह आपके जीवन को निर्देशित करेगा और 

इसकी परिभाषा हम भाग्य के रूप में करेंगे।"


     अर्थात जब व्यक्ति अचेतन को अपने जीवन में समाहित कर लेता हैं अर्थात व्यक्ति बुराईयों को अपने जीवन का अंग बना लेता हैं तो वह व्यक्ति भाग्य को दोष देता हैं लेकिन एक चेतन व्यक्ति अपने भाग्य को नहीं बल्कि अपनी अच्छाई को प्रस्तुत करता हैं इसलिए हमारे दर्शन अचेतन मन से चेतन मन की तरफ दिशा प्रस्तुत करते हैं।

       इसी प्रकार हमारे दर्शन का आधार व्यक्ति के सर्वागीण विकास पर हैं जहाँ व्यक्ति के आत्म खोज के लिए कर्तव्य निर्धारित किए हुए हैं, जैसे जैन व बौद्ध धर्म दोनो कर्मकांड व इच्छाओं के दमन की बात करते हैं साथ ही मध्यम मार्ग व अष्टांगिक मार्ग भी व्यक्ति के जीवन का आधार प्रस्तुत करते हैं वहीं दूसरी तरफ पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष भी व्यक्ति की आत्मखोज की प्रक्रिया स्पष्ट करते हैं।


          यह भी विचारणीय कि जब व्यक्ति सकारात्मक विचारों की प्राप्ति करता है तब व्यक्ति स्वयं की खोज में संलिप्त होता हैं वर्तमान समय में मनुष्य विभिन्न चिंताओं में इसीलिए ग्रसित है कि विचार सकारात्मक नहीं हैं सकारात्मक विचारों से संलिप्त व्यक्ति अपने कार्य में भी आत्मबोध की भावना को रखता हैं जहाँ उपयोगितावाद की अवधारणा शामिल हो जाती हैं। इसी तरह जब व्यक्ति अपनी कमियों की पहचान कर तथा आंतरिक प्रेरणा को प्राप्त कर लेता है तो निश्चित ही वह व्यक्ति सफल जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करता हैं।


           अत: यह कहा जा सकता हैं कि"स्वप्रेम" की अवधारणा मजबूत हैं तो स्व खोज (आत्मबोज) की प्रक्रिया अधिक आसान होगी, लेकिन इस प्रक्रिया में विभिन्न दार्शनिक मत्तो के आधार पर यह कहा जा सकता है आम खोज में व्यक्ति स्वयं के कल्याण के साथ - साथ मानवीय कल्याण भी समाहित करें। वर्तमान में प्रचलित योग व ध्यान जैसी सिद्धि व्यक्ति को आत्म-खोज में प्रेरित करती हैं। लेकिन एक अवधारणा यह भी हैं कि जब व्यक्ति किसी निर्णय को केवल व्यक्तिकेन्द्रित रखता हैं तो वह मानव बन जाता हैं लेकिन मनुष्य नहीं। इसी तरह जब एक हवा में उड़ रहे पंछी का शेर शिकार नही कर सकता  उसी तरह आत्मबोज से पूर्ण व्यक्ति समस्याओं से घिर नहीं सकता। वर्तमान में मानवीय कल्याण के लिए प्रशासन के स्तर पर भी विवेक व अंतरात्मा जैसे निर्णय लेने कि प्रक्रिया को शामिल किया जाता है ज़ो आत्म बोच का ही परिणाम हैं।


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